आज हम आपको नेपाली नोटों में दिखने वाली भारतीय जगह के बारे में बताने जा रहे हैं! हाल ही में नेपाल के द्वारा नोटों का निर्माण किया गया, जिसमें कई भारतीय जगह को शामिल किया गया! बता दे कि दो साल तक अंग्रेजों और नेपाल की बीच चली लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच 2 दिसंबर, 1815 को एक संधि हुई, जिसे सुगौली की संधि कहा जाता है। बिहार के चंपारण में स्थित सुगौली में हुई इस संधि पर 4 मार्च, 1816 को नेपाल की ओर से राजगुरु गजराज मिश्र के सहायक चंद्रशेखर उपाध्याय और ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने दस्तखत किए थे। अंग्रेजों को यह डर था कि शायद नेपाल इस संधि को लागू न करे। ऐसे में तत्कालीन गवर्नर जनरल डेविड ऑक्टरलोनी ने ब्रिटिश सरकार की ओर से संधि पर उसी दिन आनन-फानन में मुहर लगा दी और इस संधि की कॉपी चंद्रशेखर उपाध्याय को सौंप दी। दरअसल, आज इस कहानी का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि नेपाल ने बीते शुक्रवार को 100 रुपए के नए नोट छापने का ऐलान किया है। इस नोट पर ऐसा मानचित्र होगा जिसमें भारत के लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी को दर्शाया जाएगा। भारत इन इलाकों को लेकर पहले भी कड़ी प्रतिक्रिया दे चुका है। भारत ने कहा है कि ये तीनों इलाके भारत के अहम हिस्से हैं। इससे पहले 18 जून, 2020 को नेपाल ने अपने संविधान में संशोधन करके रणनीतिक रूप से अहम तीन इलाकों लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को नेपाल का हिस्सा बताया था, तब भी भारत ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई थी। दरअसल, नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद से स्थिर लोकतंत्र कभी आया ही नहीं। वहां पर चीन का प्रभाव इतना ज्यादा रहा है कि आज भी नेपाल की कई सरकारें भारत के खिलाफ बयानबाजी से बाज नहीं आतीं। चीन वहां पर निर्माण कार्य के अलावा नेपाल के संविधान और प्रशासन में भी अपना प्रभुत्व जमा रहा है।सुगौली की संधि से नेपाल ने बीते 25 साल में राजाओं के जीते और कब्जे किए हुए क्षेत्रों का करीब एक-तिहाई हिस्सा गंवा दिया। इसमें पूर्व में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही और दक्षिण में तराई का अधिकतर क्षेत्र शामिल था। तराई भूमि का कुछ हिस्सा 1816 में ही नेपाल को लौटा दिया गया। 1860 में तराई भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सहायता करने की एवज में पुन: लौटाया गया। इस संधि से काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति की जानी थी और ब्रिटिश आर्मी में गोरखाओं की भर्ती की राह खुली। दिसंबर, 1923 में सुगौली संधि को ‘सतत शांति और मैत्री की संधि’ कहा जाने लगा और संधि में ब्रिटिश प्रतिनिधि की जगह सिर्फ दूत कर दिया गया। 1950 में भारत-नेपाल ने एक नई संधि पर दो स्वतंत्र देशों के रूप में हस्ताक्षर किए, जिसका मकसद दोनों देशों के बीच संबंधों को नए सिरे से स्थापित करना था।
दरअसल, 1765 में भारत का पड़ोसी देश नेपाल में एक हिंदू राजा पृथ्वीनारायण शाह ने गोरखा साम्राज्य की स्थापना की। बता दे की पृथ्वीनारायण ने गोरखाओं की मदद से नेपाल के छोटे-छोटे राजे-रजवाड़ों और रियासतों को जीतकर मिला लिया। इसके बाद 1790 में गोरखा आर्मी ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। 1792 में चीन ने तिब्बत के साथ मिलकर गोरखाओं को खदेड़ दिया। इसके बाद गोरखा आर्मी ने भारत की ओर अपना कब्जा जमाना शुरू किया और 25 साल में गोरखा आर्मी ने भारत से सटे हिमालयी राज्यों सिक्किम, गढ़वाल और कुमाऊं पर अपना कब्जा जमा लिया।
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन पर छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, सुगौली की संधि में यह कहा गया था कि महाकाली नदी के पश्चिम हिस्से पर नेपाल का अधिकार नहीं है। जैसा की महाकाली नदी है, जिसे हमारे देश भारत में शारदा नदी भी कहते हैं। यही कारण है कि भारत इस इलाके में सड़क बना रहा है। वहीं, संधि के अनुसार, नेपाल के हिस्से में इसी महाकाली नदी का पूर्वी हिस्सा आता है। वहीं, नेपाल सरकार कहती है कि संधि में महाकाली नदी के पश्चिमी हिस्से पर भी नेपाल का अधिकार की बात है। सुगौली संधि में यह कहा गया था कि नेपाल की सीमा पूरब में मैची नदी और पश्चिम में महाकाली नदी तक होगी।
नेपाल यह कहता है कि महाकाली नदी की मुख्य धारा लिंपियाधुरा से शुरू होती है। ऐसे में इसे ही उद्गम स्थल माना जाएगा। अब चूंकि उद्गम स्थल लिंपियाधुरा है तो लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी नेपाल के हिस्से हुए। वहीं, भारत का कहना है कि महाकाली नदी की सभी धाराएं कालापानी गांव में आकर मिलती हैं, ऐसे में इसे ही नदी का उद्गम स्थल माना जाए। चूंकि, कालापानी ही महाकाली नदी का उद्गम स्थल है तो लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी भारत के हिस्से में है। भारत ये भी कहता है कि सुगौली संधि में मुख्य धारा को नदी माना गया था। ऐसे में लिपुलेख को नेपाल का हिस्सा मानना गलत है। महाकाली और गंडक (नारायणी) जैसी नदियां जिन इलाकों में सीमा तय करती हैं, वहां मानसूनी बाढ़ से तस्वीर बदल जाती है।
भारत के आजाद होने के बाद जब 1962 में भारत-चीन जंग हुई तो उसके कुछ समय बाद ही नेपाल ने अपना तेवर दिखाते हुए लिपुलेख पर अपना हक जताया था। 1981 में दोनों देशों की सीमाएं तय करने के लिए एक संयुक्त दल बना था, जिसने 98% सीमा तय भी कर ली थी। वहीं, 2000 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजाप्रसाद कोइराला ने भारतीय पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से इस विवाद को बातचीत से सुलझाने का आग्रह भी किया था। इसके बाद 2015 में भारत ने चीन के साथ उत्तराखंड के लिपुलेख से होते हुए एक व्यापारिक मार्ग का समझौता किया था। उस समय नेपाल ने यह आपत्ति जताई थी कि यह समझौता करने से पहले दोनों देशों को उससे पूछना चाहिए था। जबकि, भारत बरसों से लिपुलेख को अपने नक्शे में दिखाता रहा है।