Friday, March 28, 2025
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आखिर चुनावों में क्यों काम नहीं आया मोदी योगी फैक्टर?

हाल ही में हुए चुनावों में मोदी योगी फैक्टर बिल्कुल भी काम नहीं आया है! जानकारी के लिए बता दे कि उत्तर प्रदेश में जहां बीजेपी की 80 सीट थी वहां घटकर सिर्फ 32 से 34 पर सिमट कर ही रह गई है! बता दे कि लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे सामने आ चुके हैं। इस बार के नतीजे बीजेपी के लिए बहुत शुभ नहीं रहे। एनडीए गठबधंन को बहुमत जरूर मिला है, लेकिन बीजेपी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई। बीजेपी को सबसे बड़ा झटका यूपी में लगा। यूपी में बीजेपी को महज 33 सीटें मिली हैं। वहीं समाजवादी पार्टी ने 37 और कांग्रेस ने 6 सीटें जीतीं। बीजेपी के लिए 2014 के बाद से सत्ता हासिल करवाने में यूपी सबसे ज्यादा मददगार रहा है। लेकिन इस बार जिस तरह से नतीजे पलटे वो सीएम आदित्यनाथ के लिए चौंकाने वाली सच्चाई है। बता दे की योगी जी को यहां झटका लगा है जो मजबूत कानून व्यवस्था, विकास, हिंदुत्व का एजेंडा के दमपर देशभर में जाना जाता रहा है। चुनाव प्रचार में योगी-मोदी फैक्टर और डबल इंजन की सरकार का मॉडल बीजेपी पेश करती दिखी। लेकिन नतीजों में ‘डबल इंजन’ इस बार लड़खड़ा गया और अखिलेश यादव का ‘पीडीए’ फॉम्युला काम कर गया। इसके अलावा असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा पर भी बीजेपी ने खूब भरोसा जताया था। पिछले कई चुनावों में सरमा की हिंदुत्ववादी छवि लोकप्रिय हो रही है। इसके साथ ही योगी और सरमा दोनों नेताओं को हिंदू ह्रदय सम्राट कहकर संबोधित किया जाता रहा है। इस चुनाव में दोनों नेताओं पर जनता ने कम भरोसा जताया है। योगी ने यूपी में लगातार पांच चुनावों में भाजपा की जीत का नेतृत्व किया है। इसमें 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव, 2019 के लोकसभा चुनाव और दो स्थानीय निकाय चुनाव शामिल हैं। इन चुनावों में बीजेपी की शानदार जीत का श्रेय योगी को दिया जाता रहा है, ऐसे में एक्सपर्ट्स का मानना है कि उन्हें इस निराशाजनक प्रदर्शन की भी जिम्मेदारी लेनी होगी। हालांकि उन्हें बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता।’ उम्मीदवारों का चयन, सत्ता विरोधी लहर और उनके खिलाफ बढ़ते आक्रोश को नजरअंदाज करते हुए किया गया और यह हार के मुख्य कारणों में से एक बनकर उभरा है। पार्टी के एक अंदरूनी सूत्र ने कहा कि योगी ने स्पष्ट रूप से कहा कि उम्मीदवार चयन की जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व के पास थी।

एक पर्यवेक्षक ने कहा, ‘योगी को भाजपा के लिए एक तारणहार के रूप में देखा जाता है। उम्मीदवारों के चयन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। जो लोग अपने खिलाफ बढ़ते गुस्से के बावजूद जीते हैं, वे जब अपनी सफलता के कारणों पर आत्मनिरीक्षण करेंगे तो निश्चित रूप से मोदी फैक्टर के साथ-साथ योगी के योगदान को भी श्रेय देंगे।’ इस बार उत्तर प्रदेश में अपनी हर चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल कानून-व्यवस्था के योगी मॉडल की प्रशंसा की, जिसने राज्य में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया। मोदी योगी के विकास मॉडल की भी जमकर चर्चा करते रहे। एक अन्य एक्सपर्ट का कहना है कि योगी के लिए यह श्रेय की बात है कि वे पार्टी के सबसे लोकप्रिय प्रचारकों में से एक थे, जिन्होंने लगभग 170 रैलियों को संबोधित किया, न केवल यूपी में बल्कि बाहर भी। इससे पहले, वे सभी 75 जिलों का दौरा कर चुके थे। लेकिन यह स्पष्ट रूप से पर्याप्त नहीं था और पार्टी के शीर्ष स्तर पर उनकी स्थिति को नुकसान पहुंचेगा। यह बहस का विषय हो सकता है कि वे कितने बड़े पैमाने पर प्रचार कर रहे हैं।

हालांकि, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल द्वारा प्रचार के बीच में सेट किया गया नैरेटिव फिर से चर्चा में है। रैलियों को संबोधित करते हुए केजरीवाल ने दावा किया कि बीजेपी की जीत के बाद, योगी को कई अन्य बीजेपी सीएम की तरह हटा दिया जाएगा। यूपी पर नज़र रखने वालों के मुताबिक, दिल्ली के सीएम ने एक झूठी कहानी गढ़ने की कोशिश की कि बीजेपी के अंदर सब कुछ ठीक नहीं है और शीर्ष नेतृत्व योगी की बढ़ती लोकप्रियता के कारण उनसे सावधान है और इससे मतदाताओं के एक वर्ग पर असर पड़ सकता है।

वहीं दूसरी ओर बीजेपी के एक बड़े स्टार प्रचारक के रूप में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की भूमिका को लेकर भी चर्चा हो रही है। लोकसभा चुनाव के नतीजे उनके लिए अच्छे नहीं रहे। बीजेपी के तमाम बड़े राष्ट्रीय अभियानों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, पूर्वोत्तर में पार्टी और एनडीए का प्रदर्शन, खासकर मणिपुर में, उनके भविष्य के बारे में सवाल खड़े करता है। उनके गृह राज्य असम में, दल ने 2019 के समान ही सीटें बरकरार रखीं, लेकिन अपने प्रदर्शन में सुधार करने में असफल रही। हालांकि सरमा असम को छोड़कर पूर्वोत्तर में चुनाव प्रचार में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन इस क्षेत्र के चुनावी नतीजों से अब उनके अपने क्षेत्र में भी कुछ कर दिखाने की क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं।

यह सरमा के राजनीतिक भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है। हालांकि भाजपा के भीतर उनकी राष्ट्रीय छवि निस्संदेह बढ़ी है, लेकिन पार्टी की असफलताओं, खासकर मणिपुर में, से पार्टी के भीतर उनके प्रभाव और स्थिति का पुनर्मूल्यांकन हो सकता है। क्या केंद्रीय नेतृत्व उन पर उसी स्तर का भरोसा बनाए रखता है, और भविष्य में वे उनकी राजनीतिक पूंजी का किस तरह से उपयोग करते हैं, यह देखना अभी बाकी है। सरमा की राजनीतिक यात्रा कांग्रेस पार्टी से शुरू हुई। हालांकि, वे 1996 में अपना पहला विधानसभा चुनाव हार गए। लेकिन इससे उनकी पार्टी में तेजी से आगे बढ़ने में बाधा नहीं आई और असम सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री पद संभाले। बदलते राजनीतिक माहौल को पहचानते हुए, उन्होंने 2015 में भाजपा में जाने का फैसला किया, यह फैसला अगले साल असम में पार्टी की ऐतिहासिक जीत में महत्वपूर्ण साबित हुआ।

सरमा की रणनीतिक कुशलता का परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के 43 विधायकों को अपने पाले में कर लिया और राज्य में पार्टी की सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया।इस उपलब्धि के बाद मणिपुर में भाजपा की पहली सरकार बनी और त्रिपुरा में वाम मोर्चे को ऐतिहासिक रूप से सत्ता से बेदखल किया गया, जहां दशकों से उनका दबदबा था। पूर्वोत्तर में राजनीतिक बदलाव की लहर चल पड़ी और नागालैंड, मेघालय और मिजोरम में भी एनईडीए/एनडीए सरकारें बनीं। हालाकि, अब इस सफलता की कहानी में नए मोड़ आ गए हैं।

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