यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अब तालिबान भारत का मित्र बन चुका है या नहीं! क्योंकि एक ऐसा समय था जब तालिबान भारत का दुश्मन हुआ करता था! लेकिन अब तालिबान की अकड़ धीमी पड़ चुकी है! जानकारी के अनुसार साल 2021 अगस्त जब अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सेनाएं अफगानिस्तान से वापस लौट रही थीं, उसी वक़्त तालिबान ने काबुल पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके अलावा भारत उस समय अफगानिस्तान में लंबा निवेश किया था, लेकिन अचानक हुए इस बदलाव ने भारत की स्थिति को चुनौती भरा बना दिया था। ऐसे हाल मे भारत ने जब तालिबान के साथ काम शुरू किया तो उसे आलोचना का भी सामना करना पड़ा। और ये चिंताएं तालिबान के मानवाधिकारों और महिलाओं को लिए रिकॉर्ड को देखते हुए थीं। हालांकि, मुड़कर देखने पर तालिबान के साथ संपर्क स्थापित करने का भारत का फैसला कारगर साबित हुआ है। तालिबान कभी भारत का विरोधी हुआ करता था। कंधार में बंदूकधारी तालिबान के सुरक्षा घेरे में भारत के अपहृत विमान की तस्वीरें आज भी बहुत लोगों के जेहन में ताजा हैं, लेकिन ये बात भी सच है कि 1996-2001 के कार्यकाल की तुलना में तालिबान 2.0 ने भारत के प्रति अपना रवैया बदला है। भारत ने अफगानिस्तान के क्रिकेट को जिस तरह से मदद करके उभारा है, उसका नतीजा इस बार टी-20 विश्वकप में दिखा, जब अफगान टीम ने ऑस्ट्रेलिया को हरा दिया। अफगान क्रिकेट टीम ने सेमीफाइनल के लिए क्वालीफाई किया तो तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख सुहैल शाहीन ने कहा, ‘हम अफगान क्रिकेट टीम की क्षमता निर्माण में भारत की निरंतर मदद के लिए आभारी हैं। हम वास्तव में इसकी सराहना करते हैं।’
तालिबान और भारत के रिश्ते सिर्फ क्रिकेट तक ही नहीं हैं। अफगानिस्तान में तालिबान और भारत का संपर्क व्यापार और दूसरे मामलों तक बढ़ रहा है। वर्तमान में भाारत की अफगानिस्तान के विभिन्न प्रातों में 500 परियोजनाएं चल रही हैं। रविवार 30 जून को संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में होने वाली दोहा बैठक के दौरान भी भारत के प्रतिनिधि से तालिबान डेलीगेशन की मुलाकात हुई। तालिबान के साथ संपर्क बढ़ाने की नीति का नतीजा है कि अफगानिस्तान आज अपना व्यापार पाकिस्तान के रास्ते करने के बजाय ईरान के चाबहार पोर्ट से करने की तरफ बढ़ रहा है। चाबहार पोर्ट का निर्माण भारत ने किया है और इसी साल ईरान के साथ समझौते के तहत 10 साल के लिए संचालन का अधिकार हासिल किया है। खास बात ये है कि तालिबान ने भी इस बंदरगाह में छोटे ही सही लेकिन महत्वपूर्ण निवेश की घोषणा की है।
भारत की रणनीति इस मामले में साफ है कि तालिबान को अलग-थलग करने का प्रयास अब तक काम नहीं आया है। ऐसे में बातचीत को एक मौका क्यों न दिया जाए? भारत के लिए काबुल में मौजूद किसी भी सरकार से दूरी बनाना पाकिस्तान को वहां खुलकर खेलने का मौका देता है, फिर चाहे वह तालिबान ही क्यों न हो। यही कारण है कि इस बार भारत ने तालिबान के आने के बाद काबुल से संपर्क खत्म नहीं किया। इसका रीसॅलॅट यह है कि दिल्ली ने काबुल में शक्ति संतुलन के मामले में इस्लामाबाद को पीछे छोड़ दिया है।
यह पाकिस्तान ही था, जिसके निरंतर प्रयासों ने तालिबान की काबुल में वापसी कराई, लेकिन जब भारत के प्रभाव वो विफल करने की बारी आई तो इस्लामाबाद की नीति विफल साबित हुई। तालिबान के सत्ता में वापस आने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान पाकिस्तान को हुआ है। इस्लामाबाद ने पाकिस्तान में होने वाले चरमपंथी हमलों के लिए खुलकर तालिबान सरकार को जिम्मेदार ठहराया है और अफगानिस्तान के अंदर सैन्य कार्रवाई तक करनी पड़ी है। तालिबानी का पाकिस्तानी संस्करण टीटीपी तेजी से सिर उठा रहा है और इसने पाकिस्तानी सैन्य बलों पर बड़े हमले किए हैं।